रोजगार 'रोटी' नहीं 'शून्य' है .....

Image result for इमेज ऑफ़ उनेम्प्लोयेद यूथ इन इंडिया


कोरोना महामारी ने देश में हर किसी को हिला कर रख दिया है , मौत के डर से ज्यादा रोजी-रोटी का डर है . प्राइवेट कंपनियों में काम करने वाले कामगार अपना रोजगार छिन जाने के डर से हर रोज अपने बच्चों का चेहरा देख कर डर रहे हैं . कल अगर काम नहीं होगा तो क्या खिलाएंगे? उनके स्कूलों की फीस कैसे जमा करेंगे? बूढ़े माँ- बाप की दवाइयों और इलाज का खर्च कहाँ से लायेंगे ? 
अलग अलग राज्यों से लौटे लाखों  मजदूर फिर से वापसी की जुगत लगाने लगे हैं. जो इस उम्मीद में हजारों मील लम्बा सफ़र करके लौटे थे कि अब नहीं जाएँगे परदेश कमाने. कम खायेंगे पर अपने घर में रहेंगे वे अब फिर अपना असबाब बंधने लगे हैं . "नौकरी और चाकरी ,न करी तो का करी " का सवाल  उन लाखों मजदूरों के दिमाग पर छाया हुआ है जो पिछले ही महीने लंबी, कष्टप्रद यात्रा कर घर लौटे थे . एक ही महीने में वे समझ गए कि अब गाँव वैसा नहीं रहा जैसा वे छोड़ गए थे. घर टूट चुके हैं , परिवार बड़े हो चुके हैं और घरों में लोग एक-एक दाना गिन-गिन कर खा रहे हैं .न खेत बचे हैं , न पैसे . जब शहर में रहकर बुरे वक्त के लिए कुछ न बचा सके तो गाँव में छोड़ा हुआ कितना बचेगा ????   
हमारे देश में किसी भी राज्य सरकार के पास इतनी कुव्वत नहीं है कि वे अपने हर नागरिक के किये सम्मानजनक रोजगार का सृजन कर सकें. उनके बच्चों के पोषण के लिए पर्याप्त इंतजाम कर सकें . जब-जब रोजगार की बात आती है सबसे ज्यादा चिंता युवाओं की होती है. उनके बारे में तो कोइ बात भी नहीं करता जो बेरोजगार रहकर युवा से प्रौढ़ हो चुके हैं . क्या चालीस साल के ऊपर के लोगों  को काम नहीं चाहिए ? देश में पिछले 20 सालों से रोजगार उपलब्धता की स्थिति कमोबेश एक सी है. उस समय के युवा नौकरी ढूंढते-ढूंढते बूढ़े हो गए लेकिन काम नहीं मिला. पिछले बीस सालों से रोजगार कार्यालयों के रजिस्टरों की अगर जाँच की जाय तो रोजगार के लिए निबंधित होने वाले और रोजगार पाने वालों का अनुपात 10:2 से अधिक न होगा. 
अपने ही देश में प्रवासी कहे जाने वाले मजदूरों के लिए आजीविका का सबसे बड़ा श्रोत सरकारे मनरेगा जैसी योजना को मान ती हैं जो कि बेहद श्रम साध्य रोजगार उपलब्ध कराती है.अब क्या चालीस या पैतालीस साल के आदमी या औरत का शरीर दिन भर मिट्टी खोदने जैसा कठिन काम कर सकता है जबकि जन्म से ही उसके शरीर को भर पेट स्वास्थ्यकर भोजन न मिला हो. बेरोजगारी और रोजगार की तलाश के असफल संघर्ष ने जिस के शरीर को समय से पहले ही कमजोरी का दीमक लगा दिया हो ? आज देश एक ऐसी पीढ़ी के साथ जी रहा है जिनका आधा जीवन भूख और बदहाली में बीता है और आने वाला आधा जीवन असुरक्षा, गरीबी और बच्चों के लिए कुछ न कर पाने की आत्मग्लानि में गुजरना हो. इस आयुवर्ग के लोगों के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं है और उनकी डिग्रियां कूड़े के ढेर के अलावा कुछ नहीं हैं .   
न कल के युवा के पास काम था न आज के युवा के पास काम है. SWIGGY, Zomato और अन्य onlineकंपनियों के डिलीवरी boy की नौकरी को सरकार रोजगार का बहुर बड़ा साधन मान रही है और अपनी पीठ थपथपा रही है. National Crime Record Bureau की रिपोर्ट के अनुसार 2018 में हर रोज औसतन 35 लोगों ने रोजगार न होने के कारण आत्महत्या की थी . आज तो स्थिति और भी बदहाल है . 
महामारी ,मंदी ,मंहगाई और मौत! सवाल एक नहीं कई हैं ... क्या आज का वह बहुखंख्यक युवा जो मिड डे मील बाँटने और सरकारी सर्वेक्षणों के बोझ तले दबे शिक्षकों से पढ़ा हो , दिन भर के मुख्य् आहार के रूप में जिसके सामने सिर्फ स्कूल में मिली खिचड़ी आयी हो और नैतिक शिक्षा के रूप में जिसके सामने ढके - मुदे शब्दों में चौराहों पर की गयी अश्लील बातें और हरकते हों क्या देश ऐसे कन्धों पर आत्मनिर्भर भारत बनाने की जिम्मेदारी का बोझ रख पायेगा .

आज़ादी के बाद से इस देश ने शिक्षा , स्वास्थ्य और रोजगार पर अगर ध्यान दिया होता तो आज यह नौबत न आती , एक तरफ जब देश कोविड जैसी महामारी से लड़ रहा है ,वहीं एक वर्ग कन्धों पर परिवार बोझा उठाये एक राज्य से दूसरे राज्य की ओर दौड़ लगा रहा है. सारी कोशिशें सिर्फ दो वक्त की रोटी के लिए हैं और हमारे देश में हर हाँथ को सुकून से वह भी मयस्सर नहीं . 

#अपर्णा बाजपेयी 

Comments

  1. वर्तमान के दारुण सच का उद्घाटन करती अत्यंत सार्थक, सारगर्भित और शास को चेताती रचना।

    ReplyDelete
  2. जहाँ पर सवाल कई सारे हों वहाँ जवाब देना ही कौन चाहता!

    ReplyDelete
  3. यथार्थ,विचारणीय कथन अपर्णा।
    समय रहते संज्ञान न कभी लिया गया है न ही कभी लिया जायेगा।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

झटपट पोषण सबके लिए #Fussy Eater , #childNutrition, #Vitamin

No personal comment please!